Thursday, September 12, 2013

गणेश प्रथम पूज्य है तो विसर्जन क्यों?


सनातन संसकृति में भगवान गणेश को सदैव अपने यहां विराजित रहने की करते है कामना


आजकल चारों ओर गणपति महोत्सव की धूम मची हुई है. गांव-शहर और गली मौहल्लों में गणपति महोत्सव समितियां सक्रिय है. युवाओं की टीमें हफ्तों-महीनों की तैयारियों के बाद इन आयोजनों की प्रस्तुति हमारे सामने ला रहे है.

मूल रूप से यह संस्कृति महाराष्ट्र से आई है. मुम्बई और महाराष्ट्र का सबसे बड़ा त्योहार है गणपति. आम से खास तक वहां गणपति महोत्सव में व्यस्त है इन दिनों. खैर, देश के अन्य हिस्से भी अब इसके आकर्षण से अछूते नहीं रहे. 
हमारे यहां हो रहे इन आयोजनों से तो यही साबित हो रहा है. 

सांस्कृतिक विविधता हमारे देश की एक मुख्य विशेषता है. अब इन विभिन्न संस्कृतियों के इस रूप में हो रहे आदान-प्रदान सुखद तो है ही. साथ ही इस बहाने से सुदूर प्रदेश को जानने-समझने का भी मौका मिल रहा है. 

विघ्रविनाशक भगवान गणेश को प्रथम पूज्य माना गया है. भारतीय सनातन संस्कृति में किसी भी कार्य से पूर्व सर्वप्रथम गणेश पूजन का प्रचलन नया नहीं है. तभी तो हिन्दू सनातनी अपनी किसी भी कार्य की शुरूआत को ‘श्रीगणेश’ करना कहते है. 

हिन्दू परिवारों में भगवान गणेश अग्रपूज्य है. इसका प्रमाण इससे बड़ा क्या हो सकता है कि उसके इष्टदेव, कुलदेव, कुलदेवी कोई भी हो. किसी भी पंथ का वह अनुयायी है. फिर भी सर्वप्रथम् गणेश स्मरण तो वह करेगा ही. 

हिन्दू सनातनी के घर में गृह स्थापना-प्रवेश के साथ ही पूजा स्थल पर भगवान गणेश और मां लक्ष्मी को स्थापित किया जाता है. बाद में हर शुभ-मांगलिक कार्यों पर गणेश की प्रथम पूजा होती है. बाद में उस प्रयोजन विशेष के देवता की. पूर्णहूति अथवा अनुष्ठान के समापन पर सभी देवताओं को विदाई दी जाती है. सिवाय गणेश और  लक्ष्मी के.

अब मूल प्रश्र की ओर. 

गणपति महोत्सव के आयोजन के समापन के मौके पर गणपति का विसर्जन होता है. गाजे-बाजे के साथ शोभायात्रा निकालकर गणपति को विदाई देते हुए नदी-तालाब में प्रतिमा का विसर्जन कर दिया जाता है. ‘गणपति बप्पा मोरिया,अगले बरस तूं जल्दी आ’  के माध्यम से अपेक्षा की जाती है जल्दी आने की.

सनातन संस्कृति में गणेश को प्रथम पूज्य माना गया है. अन्य देवताओं के विसर्जन का यहां रिवाज है. लेकिन ससम्मान विदाई देकर कहते है ‘सभी देवता अपने-अपने धाम पर प्रस्थान करें व पुन: याद करने पर जरूर पधारें’. मगर इसमें भी बुद्धि प्रदाता विघ्रविनाशक गणपति और धनधान्य की देवी लक्ष्मी को सदैव अपने यहां विराजमान रहने की भी कामना की जाती है. बुजुर्गों से सुना हुआ है कि अगर भगवान गणेश और लक्ष्मी माता को हम विदा कर देंगे तो हमारे पास फिर बचेगा ही क्या?

अगर भारतीय सनातन संस्कृति में इस प्रकार से भगवान गणेश को सदैव अपने पास विराजमान रहने की कामना होती है. ऐसी संस्कृति में उनके विसर्जन का क्या काम? हो सकता है मेरी बात से आप सहमत नहीं होंगे. या फिर महाराष्ट्र की लोक संस्कृति अथवा परम्परा के पालन के रूप में गणपति विसर्जन एक प्रथा बन गई होगी. मगर, इस वैदिक संस्कृति में गणेश विसर्जन कुछ कचोटता जरूर है.

यहां मेरे से बहुत अधिक विद्वान है. जिनके मार्गदर्शन में यह सब लिखने का हौंसला जुटा पाया हूं. मेरा आप सबसे यही प्रश्र है कि अगर गणेश प्रथम पूज्य है तो उनका विसर्जन क्यों? अपने विचारों से अवश्य अवगत कराएं.

Thursday, July 25, 2013

मेरे नानाजी: चलते-फिरते खगोल विज्ञानी

राजस्थान की रंग-बिरंगी संस्कृति में बहुत सारे अमूल्य-बहुमूल्य "रतन" बिखरे पड़े है.  यहाँ की परम्पराएं विश्व में अनूठी तो है ही साथ ही दूरदर्शिता से परिपूर्ण भी है. 

यहाँ का मौखिक "खगोल शास्त्र " जितना समृद्ध है.  आज के वैज्ञानिक बरसों के अनुसंधान के बाद भी वहां तक शायद ही पहुँच सके. इस सन्दर्भ में एक निजी अनुभव शेयर करना चाहूंगा: 

मेरे नानाजी: यह तस्वीर संभवतया उसी दिन की है,
जिस दिन का अनुभव यहाँ लिखा गया है.
मेरे नानाजी (श्रीरामनिवासजी शर्मा) एक छोटेसे गाँव ललासरी में रहते है, पेशे से फुलटाइम किसान. औपचारिक शिक्षा की कोई डिग्री-प्रमाणपत्र नहीं. स्कूल में शायद ही कभी गए हो.  हाँ हिसाब-किताब तो लगभग सभी कर लेते होंगे. मगर, वे ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण "पंचांग" के पूरे जानकार. किस तिथि और किस नक्षत्र में अमुक काम करना/नही करना, यात्रा मुहूर्त शुभाशुभ आदि का पूरा नॉलेज. इसका मतलब यह कतई नही कि वे गाँव पंडिताई करते है. शुद्ध रूप से किसानी की है पूरी जिंदगी. खेती किसानी और ऊंट गाड़ी से जीवन यापन. चलिए परिचय फिलहाल इतना ही. 

एक दिन शाम का समय. शायद 5 से 10 बरस के पहले की बात होगी. आसमान साफ़ था. मैं ननिहाल के आंगन में चारपाई पर लेटा था. पास की चारपाई पर नानाजी. आसमान में नज़र पड़ते ही उनसे घर-परिवार की बातों से आगे मैंने "सप्तऋषि मंडल" के बारे में उन्हें बताना शुरू किया. मैंने तो सोचा गाँव के अनपढ़ किसान है उन्हें मेरे कुछ ज्ञान से लाभान्वित कर दूं. इधर पासा उल्टा पड़
गया.  सामने से ज्ञान गंगा प्रवाहित होनी शुरू हो गई.  मेरी आँखें फटी की फटी रह गई. 

"धूजी तारो ", "पीस्न्यु तारो" और न जाने क्या-क्या उन्होंने बताया. और तो और रात को बिना घड़ी समय देखने की तकनीक भी बताई. जो एकदम सटीक. मेरा पत्रकार माइंड चकरा गया. मेरी अनपढ़/देहाती और गॉव में रहने वाले बुजुर्गों के बारे में राय बदल गई. उस दिन से उन्हें ऐसे लोगों को असली "थिंक टेंक"  अथवा "ज्ञान महासागर " मानने लगा हूँ.

अगले दिन उनसे फिर उसी "मुद्दे" पर मैंने बात छेड़ी. उन्होंने मुझे "सौर घड़ी" की तकनीक से रू-ब-रू करवाया. दिन में सूर्य के प्रकाश से मैंने चंद सेकेंडों में यह घड़ी बनाना-समय देखना सीख लिया.
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मेरा मित्रों-शुभचिंतकों से अनुरोध है कि जब भी समय मिले ऐसे ज्ञानसागर में गोते लगाकर उस पीढी के ज्ञान का रसास्वादन जरूर करें. 

अगली बार फिर मिलेंगे ऐसे ही अनुभव के साथ....


Monday, January 23, 2012

वीडियो अलबम - समर्पण



वीडियो अलबम - समर्पण

श्री बेगसरबालाजी स्वर्ण जयंति के मौके पर विरासत:दी हेरिटेज की ओर से श्रीबेगसर बालाजी को समर्पित वीडियो अलबम समर्पण प्रस्तुत किया है।
‘समर्पण’ में श्री बेगसर बालाजी को समर्पित भजन शामिल किए है। अलबम आप ऑनलाइन देख-सुन सकते है। जिसके लिए नीचे लिंक दिए गए है।

1. समर्पण टाइटल

Tuesday, January 3, 2012

वीडियो अलबम ‘समर्पण’ और ‘परम्परा’ का विमोचन


श्रीबेगसरबालाजी भक्ति संगीत अलबम 
संगीत, साहित्य, धर्म, दर्शन और परम्पराओं को समर्पित विरासत दी हेरिटेज की ओर से श्रीबेगसर बालाजी को समर्पित वीडियो अलबम का विमोचन मंगलवार को उज्जैन के जीवन प्रबन्धन गुरू विजयशंकर मेहता ने किया। 
 विरासत दी हेरिटेज द्वारा प्रस्तुत वीडियो अलबम का विमोचन करते पं. विजयशंकर मेहता।
उन्होनें कहा कि विरासत दी हेरिटेज का यह प्रयास नि:सन्देह मील का पत्थर साबित होगा। बेगसर बालाजी को समर्पित वीडियो अलबम के माध्यम से क्षेत्र के भजनकलाकारों की प्रतिभा तराशने के इस प्रयास पर पं. मेहता ने संस्था के सदस्यों को साधुवाद दिया। 
इससे पूर्व पं. मेहता, पूर्व सरपंच सुल्तानसिंह कुड़ली, पं. बृजमोहन शर्मा, विरासत के शेषनारायण जांगिड़ एवं विनोद गौड़ ने दो डीवीडी वीडियो अलबम समर्पण व परम्परा तथा एमपीथ्री अलबम विरासत का विमोचन किया। 
गौरतलब है कि समर्पण अलबम में श्रीबेगसरबालाजी को समर्पित हनुमान चालीसा, श्रीबेगसरबालाजी स्तुति आदि सहित  हनुमान भजन शामिल किए गए है। वहीं परम्परा नामक अलबम में श्रीराम, श्रीकृष्ण, हनुमान के भजनों के साथ गुरूवंदना पेश की जाएगी। इसी प्रकार ऑडियो अलबम में प्रदेश के जाने माने भजन गायक गणपत दमामी(पांचवा), बाबू खां(फुलेरा), दिलीप खान(जयपुर), कुंजबिहारी कावा (जसवंतगढ़), मूलचन्द जोधपुरी, सुन्दर शर्मा (गेलासर), महेश(मारोठ) एवं मास्टर चंचल आदि गाए भजन शामिल है। 

Sunday, August 21, 2011

भारत में फिर से आजा, गैयां चराने वाले..

पर्व : जन्माष्टमी - 22 अगस्त 2011
भगवान श्रीकृष्ण विष्णुजी के आठवें अवतार माने जाते हैं। यह श्रीविष्णु का सोलह कलाओं से पूर्ण भव्यतम अवतार है। श्रीराम तो राजा दशरथ के यहाँ एक राजकुमार के रूप में अवतरित हुए थे, जबकि श्रीकृष्ण का प्राकट्य आततायी कंस के कारागार में हुआ था। श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्र रूप में हुआ था। कंस ने अपनी मृत्यु के भय से बहिन देवकी और वसुदेव को कारागार में क़ैद किया हुआ था।
कृष्ण जन्म के समय घनघोर वर्षा हो रही थी। चारों तरफ़ घना अंधकार छाया हुआ था। श्रीकृष्ण का अवतरण होते ही वसुदेव-देवकी की बेडिय़ाँ खुल गईं, कारागार के द्वार स्वयं ही खुल गए, पहरेदार गहरी निद्रा में सो गए। वसुदेव किसी तरह श्रीकृष्ण को उफनती यमुना के पार गोकुल में अपने मित्र नन्दगोप के घर ले गए। वहाँ पर नन्द की पत्नी यशोदा को भी एक कन्या उत्पन्न हुई थी। वसुदेव श्रीकृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उस कन्या को ले गए। कंस ने उस कन्या को पटककर मार डालना चाहा। किन्तु वह इस कार्य में असफल ही रहा। श्रीकृष्ण का लालन-पालन यशोदा व नन्द ने किया। बाल्यकाल में ही श्रीकृष्ण ने अपने मामा के द्वारा भेजे गए अनेक राक्षसों को मार डाला और उसके सभी कुप्रयासों को विफल कर दिया। अन्त में श्रीकृष्ण ने आतातायी कंस को ही मार दिया। श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का नाम ही जन्माष्टमी है।

आज एक बार फिर समूचे विश्व में चारों ओर ‘कंस’ पैदा हो गए है। जिससे मानवता त्रस्त है। ऐसे समय में जरूरत है कि एक बार फिर से कृष्ण-कन्हैया इस धरती पर आकर अपनी बांसुरी की तान सुनाए।

आईए हम सब उस कृष्ण-कन्हैया के जन्मोत्सव को पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाकर उनसे मानवता को बचाने के लिए हृदय से प्रार्थना करें।


विरासत:दी हेरिटेज के बैनर तले गत वर्षों में आयोजित विभिन्न संगीत समारोहों में प्रस्तुत किए गए श्रीकृष्ण को समर्पित रचनाएं आप के लिए भी प्रस्तुत है:

1. भारत में फिर से आजा, गैयां चराने वाले....
कलाकार: श्रीगणपत दमामी

2. कान्हां रे तूँ राधा बन जा, भूल पुरूष का मान.....
कलाकार: श्रीगणपत दमामी

3. ब्रज में कन्हैया तूं है, अयोध्या में राम है.....
कलाकार: डॉ. रामगोपाल त्रिपाठी

Thursday, July 21, 2011

मौसम का राग - मल्हार

हिन्दुस्तानी संगीत में सावन के गीतों का अपना ही रंग और स्वाद है। लोक संगीत से लेकर शास्त्रीय गायन-वादन में रागबद्ध बंदिशों का भंडार है। दरबारी, मालकौंस की तरह मियां की मल्हार भी एक बड़ा और लोकप्रिय राग है। इसकी रहस्यपूर्ण परतों को खोलना आसान नहीं है।

बरसात के मौसम में राग मल्हार सावनी एहसास को दुगुना
कर देती है। कहा जाता है कि इस राग के गायन से बरसात आरम्भ हो जाती है।




पं. जसराज का यह अनुभव इसे प्रमाणित करता नज़र आ रहा है -
मेरा मानना है कि संगीत में दुनिया को बदलने की अदम्य शक्ति है। एक घटना मुझे इसका हर क्षण अहसास कराती रहती हैकुछ समय पूर्व मैं राजस्थान के नागौर गया था, जहां मैंने कुछ जमीन खरीदी थी। यह क्षेत्र काफी समय से सूखे की त्रासदी झेल रहा था। लोग बारिश की एक बूंद के लिए तरस रहे थे। जब कागजी कार्यवाही पूरी हो गई तो मैंने वकील से पूछा, ''महोदय, आपको क्या दे दूं?'' इस पर उनका उत्तर था, ''कृपया कुछ ऐसा सुना दें जिससे बारिश हो जाये।'' मैंने राग मल्हार गाया। आप यकीन मानें मेरा गाना चल रहा था और वहां जोरदार बारिश शुरू हो गई। हर श्रोता भीगते हुये सुन रहा था। यही वजह है कि मैं मानता हूं कि संगीत में हर दुख को कम करने की शक्ति है।

प्रस्तुत है गत वर्ष सावन के महीने में विरासत:दी हेरीटेज के बैनर तले डीडवाना में आयोजित मल्हार उत्सव में विभिन्न कलाकारों द्वारा दी गई कुछ मल्हारी प्रस्तुतियां. . . . .

1. राग मिया की मल्हार. देखी बरखा की सरसाइ....
गायक श्री सीताराम टेलर, तबला श्री शाहीद हुसैन,
वायलिन श्री रमेश कन्डारा


2. बरसौ लागी कारी बादरव....
गायक श्री सीताराम टेलर, तबला श्री शाहीद हुसैन,
वायलिन श्री रमेश कन्डारा

3. देस मल्हार - आई रे आई रे बदरिया बरसन हारी
गायक श्री सीताराम टेलर, तबला श्री शाहीद हुसैन,
वायलिन श्री रमेश कन्डारा





गायन श्री बाबू खान, तबला श्री अब्दुल्लाह,
वा
यलिन श्री रमेश कन्डारा





और अन्त में.....

एक कजरी
डा. रामगोपाल त्रिपाठी द्वारा (दुर्गाष्टमी समारोह में )
तबला पं. कृष्णानन्द व्यास

स्वागतम.......................................