राजस्थान की रंग-बिरंगी संस्कृति में बहुत सारे अमूल्य-बहुमूल्य "रतन" बिखरे पड़े है. यहाँ की परम्पराएं विश्व में अनूठी तो है ही साथ ही दूरदर्शिता से परिपूर्ण भी है.
यहाँ का मौखिक "खगोल शास्त्र " जितना समृद्ध है. आज के वैज्ञानिक बरसों के अनुसंधान के बाद भी वहां तक शायद ही पहुँच सके. इस सन्दर्भ में एक निजी अनुभव शेयर करना चाहूंगा:
मेरे नानाजी: यह तस्वीर संभवतया उसी दिन की है, जिस दिन का अनुभव यहाँ लिखा गया है. |
मेरे नानाजी (श्रीरामनिवासजी शर्मा) एक छोटेसे गाँव ललासरी में रहते है, पेशे से फुलटाइम किसान. औपचारिक शिक्षा की कोई डिग्री-प्रमाणपत्र नहीं. स्कूल में शायद ही कभी गए हो. हाँ हिसाब-किताब तो लगभग सभी कर लेते होंगे. मगर, वे ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण "पंचांग" के पूरे जानकार. किस तिथि और किस नक्षत्र में अमुक काम करना/नही करना, यात्रा मुहूर्त शुभाशुभ आदि का पूरा नॉलेज. इसका मतलब यह कतई नही कि वे गाँव पंडिताई करते है. शुद्ध रूप से किसानी की है पूरी जिंदगी. खेती किसानी और ऊंट गाड़ी से जीवन यापन. चलिए परिचय फिलहाल इतना ही.
एक दिन शाम का समय. शायद 5 से 10 बरस के पहले की बात होगी. आसमान साफ़ था. मैं ननिहाल के आंगन में चारपाई पर लेटा था. पास की चारपाई पर नानाजी. आसमान में नज़र पड़ते ही उनसे घर-परिवार की बातों से आगे मैंने "सप्तऋषि मंडल" के बारे में उन्हें बताना शुरू किया. मैंने तो सोचा गाँव के अनपढ़ किसान है उन्हें मेरे कुछ ज्ञान से लाभान्वित कर दूं. इधर पासा उल्टा पड़
गया. सामने से ज्ञान गंगा प्रवाहित होनी शुरू हो गई. मेरी आँखें फटी की फटी रह गई.
"धूजी तारो ", "पीस्न्यु तारो" और न जाने क्या-क्या उन्होंने बताया. और तो और रात को बिना घड़ी समय देखने की तकनीक भी बताई. जो एकदम सटीक. मेरा पत्रकार माइंड चकरा गया. मेरी अनपढ़/देहाती और गॉव में रहने वाले बुजुर्गों के बारे में राय बदल गई. उस दिन से उन्हें ऐसे लोगों को असली "थिंक टेंक" अथवा "ज्ञान महासागर " मानने लगा हूँ.
अगले दिन उनसे फिर उसी "मुद्दे" पर मैंने बात छेड़ी. उन्होंने मुझे "सौर घड़ी" की तकनीक से रू-ब-रू करवाया. दिन में सूर्य के प्रकाश से मैंने चंद सेकेंडों में यह घड़ी बनाना-समय देखना सीख लिया.
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मेरा मित्रों-शुभचिंतकों से अनुरोध है कि जब भी समय मिले ऐसे ज्ञानसागर में गोते लगाकर उस पीढी के ज्ञान का रसास्वादन जरूर करें.
अगली बार फिर मिलेंगे ऐसे ही अनुभव के साथ....